सलाहकार लेखICAR-DRMR
सरसों की फसल में सफेद रतुआ या रोली रोग का नियंत्रण!
👉🏻हमारे देश के सभी सरसों उत्पादक राज्यों में यह रोग देखा जाता है और इससे काफी आर्थिक हानि पहुँचती है। पुष्पक्रम तक संक्रमण पहुँच जाने की दशा में मृदुरोमिल आसिता व सफेद रतुवा के मिले जुले प्रभाव से 17-32 प्रतिशत की उपज में हानि आंकी गयी है। यह रोग एल्ब्यूगो कैन्डीडा नामक फफूँद से उत्पन्न होती है। परपोषी पौधे पर दो प्रकार के लक्षण पाए जाते हैं, स्थानीय एवं सर्वांगी। जड़ के अलावा पौधे के सभी भागों पर लक्षण पाए जाते हैं। स्थानीय लक्षण में रोगग्रस्त पौधे की पत्तियों एवं तनों पर 1-2 मि.मि. व्यास के स्वच्छ व सफेद रंग के छोटे-छोटे फफोले बनते हैं जो कि बाद में आपस में मिलकर अनियमित धब्बे बना लेते हैं। इन फफोलों के ठीक उपर पत्ती की उपरी सतह पर गहरे भूरे/कत्थई रंग के धब्बे दिखने लगते हैं। पूर्ण विकसित हो जाने पर फफोले फट जाते हैं और सफेद/भूरे चूर्ण के रूप में बीजाणु धानियाँ फैल जाती हैं। तना व फलियों पर भी फफोले बन जाते हैं। जब पौधों के तने एवं पुश्पांग छोटी अवस्था में रोगग्रस्त हो जाते है तो यह कवक पौधों के उतकों में सर्वांगी हो जाता है। जिसके कारण पौधे के रोगग्रस्त भागों मे अतिवृद्धि हो जाती है। पुष्पक्रम एवं पुश्पांगों में फफोले बन जाते है अतिवर्धन (हाइपरप्लेसिया) व अतिवृद्धि (हाइपरट्राफी) के कारण ग्रसित भाग यथा तना, पुश्पक्रम, पुश्प दण्ड आदि फूल कर माँसल हो जाते हैं और इसके प्रभाव से उत्पन्न आंशिक व पूर्ण नपुंसकता के कारण बीज नहीं बन पाते। इस फूली हुई संरचना को बारहसिंघा (स्टेगहेड) कहते हैं। नम (70 प्रतिशत से अधिक आर्द्रता) व ठण्डी (5-12 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान) व बदलीयुक्त (2-6 घण्टे की धूप) जलवायु इस रोग के फैलाव में सहायक हैं।
प्रबंधन
👉🏻समय से बुआई करें। स्वस्थ व प्रमाणित बीज का उपयोग करें।
👉🏻रोग ग्रसित फसल अवशेषों को जला कर या गाड़ कर नष्ट कर दें।
👉🏻खरपतवार से फसल को साफ रखें।
👉🏻मेटालेक्जिल (एप्राॅन 35 एस.डी.) से 6 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से बीज द्वारा पनपने वाले रोगों को रोका जा सकता है।
👉🏻फसल पर रोग के लक्षण दिखते पर मैनकोजेब (डाइथेन एम 45)/रिडोमिल एम.जेड. 72 डब्लू.पी., फफूंदीनाशक के 0.25 प्रतिशत घोल (2 किलोग्राम दवा की मात्रा को 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से) का 2 छिड़काव 15-20 दिन के अन्तर पर करने से सफेद रतुवा से बचाया जा सकता है। अधिकतम तीन छिड़काव ही आर्थिक दृश्टिकोण से उचित होते हैं। फसल में इस बीमारी का प्रकोप दिखने पर सिंचाई न करें क्योंकि इस रोग के फैलने की संभावना बढ़ जाती है।
स्रोत:- ICAR-DRMR,
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