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मूंग की फसल में सरकोरस्पोरा पत्ती धब्बा रोग का नियंत्रण!
एग्री डॉक्टर सलाहभारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान
मूंग की फसल में सरकोरस्पोरा पत्ती धब्बा रोग का नियंत्रण!
मूंग का यह एक प्रमुख रोग है जिससे प्रतिवर्ष उपज में भारी क्षति होती है। यह रोग भारत के लगभग सभी मूंग उगाने वाले क्षेत्रों में व्यापकता से पाया जाता है। वातावरण में अधिक नमीं होने की दशा में इस रोग का संचरण होता है। अनुकूल वातावरण में यह रोग एक महामारी का रुप ले सकता है। यह रोग सरकोस्पोरा क्रुएन्टा या सरकोस्पोरा केनेसेन्स नामक कवक द्वारा होता है। यह कवक बीज के साथ मिल जाता है और ऐसे बीज का बिना उपचार के बोने से फसल में अधिक रोग हो सकता है। यह कवक रोग ग्रसित पौधे के अवशेषों व मृदा में पडा रहता है। ऐसे खेतो में अगले वर्ष मूंग की फसल लेने से इस रोग के प्रकोप की अधिक संभावनाएं रहती हैं। सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा रोग के कारण पत्तियों पर भूरे गहरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं जिनका बाहरी किनारा गहरे से भूरे लाल रंग का होता है। यह धब्बे पत्ती के ऊपरी सतह पर अधिक स्पष्ट दिखायी पड़ते हैं। रोग का संक्रमण पुरानी पत्तियों से प्रारम्भ होता है। अनुकूल परिस्थतियों में यह धब्बे बड़े आकार के हो जाते हैं और अन्ततः रोगग्रसित पत्तियाँँ गिर जाती हैं। रोग का प्रबंधन रोग से बचाव के लिये रोग मुक्त बीज का प्रयोग करें। रोग के उत्पन्न होने से रोकने के लिये खेत की सफाई व पानी विकास की व्यवस्था करने के साथ साथ फसल चक्र अपनाना चहिये। रोग ग्रस्त फसल के अवशेषों को भली प्रकार से नष्ट कर दें तथा खेत के आस पास वायरस पोसी फसलों को लगाने से बचें। बुवाई से पहले बीज को कैप्टान या थीरम नामक कवकनाशी से (2.5ग्रा./कि.ग्रा. की दर से) शोधित करें। फसल पर रोग के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही कवकनाशी कार्बेन्डाजिम (0.05 प्रतिशत) का 5 ग्राम प्रति 10 लीटर या मेंन्कोजेब (0.25 प्रतिशत ) 25 ग्राम प्रति 10 लीटर की दर से एक से दो बार छिड़काव 10-15 दिन के अन्तराल पर करें। अगर रोग फलियाँ आने के बाद प्रकट होता है तो इस अवस्था में कवकनाशी रसायन के प्रयोग से कोई लाभ नहीं मिलता है। सामान्यतः पुरानी फलियों में ही संक्रमण होता है, जो अधिक धब्बे बनने की स्थिति में काली पड़ जाती हैं तथा एैसी फलियों में दाने भी बदरंग तथा सिकुड़ जाते हैं। कभी-कभी यह धब्बे बडे़ (5-7 मि‐मी‐ब्यास) तथा इनका केन्द्र राख के रंग का तथा किनारी लाल-बैंगनी रंग की होती है। जबकि कभी छोटे (1-3 मि‐मी‐ ब्यास) लगभग गोलाकार तथा केंद्र में पीलापन लिए हल्के भूरे रंग तथा किनारी लाल भूरे रंग की होती है।
स्रोत:- भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान, प्रिय किसान भाइयों दी गई जानकारी उपयोगी लगी, तो इसे लाइक करें एवं अपने अन्य किसान मित्रों के साथ शेयर करें धन्यवाद!
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